मां

कभी धुंध और कोहरे की सर्द रातों के बाद किसी दोपहर में मिली धूप में लेटे बैठे झपकी में क्यों यही एक स्वप्न अहसास कराता है जैसे जीवन के हर कष्ट से उबारने कोई कोमल स्पर्श सर से पांव बस इसी तरह सहराता जाता है फिर धूप के जाते ही वही निष्प्राण ठंड से स्वयं को बचाने का संघर्ष मां तुम इस धूप के आवरण में ठहर क्यों नहीं जाती हो सदा के लिए

©अनन्तसिन्धु

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