कभी धुंध और कोहरेकी सर्द रातों के बादकिसी दोपहर में मिलीधूप में लेटे बैठे झपकीमें क्यों यही एक स्वप्न अहसास कराता है जैसेजीवन के हर कष्ट से उबारनेकोई कोमल स्पर्श सर से पांवबस इसी तरह सहराता जाता हैफिर धूप के जाते ही वही निष्प्राणठंड से स्वयं को बचाने का संघर्षमां तुम इस धूप के आवरण में ठहर क्यों नहीं जाती हो सदा के लिए
©अनन्तसिन्धु
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